Monday, September 12, 2011

हिन्दी का अर्चन वन्दन

हिन्दी मे ही सुभीता है
हिन्दी का अर्चन वन्दन है
भाषा मे यह चन्दन है
सौरभ इसका फैल रहा
घर घर मे अभिनन्दन है
यह सबकी अभिव्यक्ति है
अपने देश की शक्ती है
इस भाषा को देखो तो
प्यार ही प्यार छ्लकाति है
यह ममतामयी लोरी है
भारत मा की छोरी है
इसका बन्धन कहलाता
अखन्डता की डोरी है
यह कवियो की कविता है
रामायन और गीता है
अंग्रेजी मे चकाचौन्ध है
हिन्दी मे ही सुभीता है

हिन्दी का अर्चन वन्दन्


हिन्दी मे ही सुभीता है
हिन्दी का अर्चन वन्दन है
भाषा मे यह चन्दन है
सौरभ इसका फैल रहा
घर घर मे अभिनन्दन है
यह सबकी अभिव्यक्ति है
अपने देश की शक्ती है
इस भाषा को देखो तो
प्यार ही प्यार छ्लकाति है
यह ममतामयी लोरी है
भारत मा की छोरी है
इसका बन्धन कहलाता
अखन्डता की डोरी है
यह कवियो की कविता है
रामायन और गीता है
अंग्रेजी मे चकाचौन्ध है
हिन्दी मे ही सुभीता है

Thursday, June 23, 2011

कर्म की भावना का महत्व


गहना कर्मणो गति

भीतरी दुनियाँ में गुप्‍त-चित्र या चित्रगुप्‍त पुलिस और अदालत दोनों महकमों का काम स्‍वयं ही करता है। यदि पुलिस झूठा सबूत दे दे तो अदालत का फैसला भी अनुचित हो सकता हैपरंतु भीतरी दुनियाँ में ऐसी गड़बड़ी की संभावना नहीं। अंत:करण सब कुछ जानता है कि यह कर्म किस विचार से,किस इच्‍छा सेकिस परिस्थिति मेंक्‍यों कर किया गया था। वहाँ बाहरी मन को सफाई या बयान देने की जरूरत नहीं पड़ती क्‍योंकि गुप्‍त मन उस बात के संबंध में स्‍वयं ही पूरी-पूरी जानकारी रखता है। हम जिस इच्‍छा सेजिस भावना से जो काम करते हैंउस इच्‍छा या भावना से ही पाप-पुण्‍य का नाप होता है। भौतिक वस्‍तुओं की नाप-तोल बाहरी दुनियाँ में होती है। एक गरीब आदमी दो पैसा दान करता है और एक धनी आदमी दस हजार रूपया दान करता हैबाहरी दुनियाँ तो पुण्‍य की तौल रुपए-पैसों की गिनती के अनुसार करेगी। दो पैसा दान करने वाले की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखेगापर दस हजार रूपया देने वाले की प्रशंसा चारों ओर फैल जाएगी। भीतरी दुनियाँ में यह नाप-तोल नहीं चलती। अनाज के दाने अँगोछे में बाँधकर गाँव के बनिए की दुकान पर चले जाएँतो वह बदले में गुड़ देगापर उसी अनाज को इंग्‍लैंड की राजधानी लंदन में जाकर किसी दुकानदार को दिया जाएतो वह कहेगा-महाशय इस शहर में अनाज के बदले सौदा नहीं मिलतायहां तो पौंडशिलिंगपेंस का सिक्‍का चलता है। ठीक उसी प्रकार बाहरी दुनियाँ में रूपयों की गिनती सेकाम के बाहरी फैलाव सेकथा-वार्ता सेतीर्थयात्रा आदि भौतिक चीजों से यश खरीदा जाता हैपर चित्रगुप्‍त देवता के देश में यह सिक्‍का नहीं चलतावहाँ तो इच्‍छा और भावना की नाप-तौल है। उसी के मुताबिक पाप-पुण्‍य का जमा-खर्च किया जाता है।
भगवान कृष्‍ण न अर्जुन को उकसा कर लाखों आ‍दमियों को महाभारत के युद्ध में मरवा डाला। लाश से भूमि पट गईखून की नदियाँ बह गईफिर भी अर्जुन को कुछ पाप न लगाक्‍योंकि हाड़-माँस से बने हुए कितने खिलौने टूट-फूट गएइसका लेखा चित्रगुप्‍त के दरबार में नहीं रखा गया। भला कोई राजा यह हिसाब रखता है कि मेरे भंडार में से कितने चावल फैल गए। पाँच तत्‍व से बनी हुई नाशवान् चीजों की कोई पूछ आत्‍मा के दरबार में नहीं है। अर्जुन का उद्देश्‍य पवित्र थावह पाप को नष्‍ट करके धर्म की स्‍थापना करना चाहता था। बस वही इच्‍छा खुफिया रजिस्‍टर में दर्ज हो गईआदमियों के मारे जाने की संख्‍या का कोई हिसाब नहीं लिखा गया। दुनियाँ में करोड़पति की बड़ी प्रतिष्‍ठा हैपर यदि उसका दिल छोटा हैतो चित्रगुप्‍त के दरबार में भिखमंगा शुमार किया जाएगा। दुनियाँ का भिखमंगा यदि दिल का धनी हैतो उसे हजार बादशाहों का बादशाह गिना जाएगा। इस प्रकार मनुष्‍य जो भी काम कर रहा है,वह किस नीयत से कर रहा हैवह नीयतभलाई या बुराई जिस दर्जे में जाती होगीउसी में दर्ज की जाएगी। सद्-भाव से फाँसी लगाने वाला जल्‍लाद भी पुण्‍यात्‍मा गिना जा सकता है और एक धर्मध्‍वजी तिलकधारी पंडित भी गुप्‍त रूप से दुराचार करने पर पापी माना जा सकता है। बाहरी आडंबर का कुछ मूल्‍य नहीं हैकीमत भीतरी चीज की है। बाहर से कोई काम भला या बुरा दिखाई दे,तो उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। असली तत्‍व तो उस इच्‍छा और भावना में हैजिससे प्रेरित होकर वह काम किया गया है। पाप-पुण्‍य की जड़ कार्य और प्रदर्शन में नहींवरन् निश्चित रूप से इच्‍छा और भावना में ही है।  

                                    Writer : Pt Shriram Sharma Acharya

Monday, June 20, 2011

!! " क्या लड़की से वंश चलेगा -पिता का नाम रोशन करेगी ? !!


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र्णाटक राज्य के छोटे से गाँव उडुपी में एक नैष्ठिक ब्राह्मण निर्मल के घर एकमात्र संतान कन्या हुई. सभी उस ब्राह्मण निर्मल पर दबाव डालने लगे कि दूसरा विवाह कर लें, उससे पुत्र प्राप्त हो जाये, वंश चले. ब्राह्मण श्री निर्मल ने दृढ़ता के साथ इसे अस्वीकार कर दिया. जन्मी कन्या का नाम था-अक्का महादेवी. उन दिनों कन्याओं को शास्त्रज्ञान के अयोग्य माना जाने लगा था. श्री निर्मल ने अक्का महादेवी को सभी शास्त्रों का अध्ययन कराया, ज्ञान दिया एवं आध्यात्मिक दिशा दी. रुढ़िवादी लोग ब्राह्मण निर्मल का उपहास करते, कहते-" क्या लड़की से वंश चलेगा ?" शिक्षा और वातावरण के प्रभाव से अक्का महादेवी का व्यक्तित्व विकसित होता गया. वे एक महान तपस्विनी, आदर्शवादी विदुषी के रूप में प्रसिद्द हुई और पिता का नाम रोशन कर दिया. आज भी लोग ब्राह्मण निर्मल का नाम अमर अक्का महादेवी के पिता के रूप में जानते हैं... 

!! यह हम पर निर्भर है कि सामने उपस्थित स्थिति को कैसे सँभालते हैं !!


एक बार जब स्वामी विवेकानंद जी के अमेरिका प्रवास के दौरान एक महिला ने उनसे शादी करने की इच्छा जताई. जब स्वामी विवेकानंद ने उस महिला से पूछा कि आप ने ऐसा प्रश्न क्यूँ किया? उस महिला का उत्तर था कि वह  स्वामी जी की बुद्धि से बहुत मोहित है. और उसे एक ऐसे ही बुद्धिमान बच्चे की कामना है. इसीलिए उसने स्वामी से यह प्रश्न किया कि क्या वे उससे शादी कर सकते है और उसे अपने जैसा एक बच्चा दे सकते हैं? उन्होंने महिला से कहा कि चूँकि वे सिर्फ उनकी बुद्धि पर मोहित हैं इसलिए कोई समस्या नहीं है. उन्होंने कहा- “प्रिय महिला, मैं आपकी इच्छा को समझता हूँ. शादी करना और इस दुनियाँ में एक बच्चा लाना और फिर जानना कि वह बुद्धिमान है कि नहीं, इसमें बहुत समय लगेगा. इसके अलावा ऐसा ह़ी हो इसकी गारंटी भी नहीं है. इसके बजाय, आपकी इच्छा को तुरंत पूरा करने हेतु मैं आपको एक प्रामाणिक सुझाव दे सकता हूँ. आप मुझे अपने बच्चे के रूप में स्वीकार कर लें . इस प्रकार आप मेरी माँ बन जाएँगी. और मेरे जैसे बुद्धिमान बच्चा पाने की आपकी इच्छा भी पूर्ण हो जाएगी.“ यह सुनकर वह महिला अवाक् रह गयी… ठीक ऐसा ह़ी एक पौराणिक प्रसंग है जब अर्जुन के रूप पर मोहित होकर स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी ने विवाह का प्रस्ताव रखा था. अर्जुन ने भी उर्वशी से यही कहा था . हम कई बार ऐसे अप्रत्याशित प्रश्न का सामना कर सकते हैं, यह हम पर निर्भर करता है कि हम इस सामने उपस्थित स्थिति को कैसे सँभालते हैं और हमारा जवाब कितना सरल होता है...

Saturday, June 18, 2011

रामदेवजी से ही क्यों डरती है कांग्रेस ?



विदेशी लोगों का समर्थन करने वाली मिडिया क्यों पड़ी है स्वामी जी के पीछे
दोस्तों, क्या आपने कभी सोचा है स्वामी रामदेव जी से ही कांग्रेस क्यों परेशान है और डरती है, जानिए कारण-----------------------------------------------------------------------?
1-स्वामी ramdev जी के तर्क के आगे कांग्रेस के तथाकथित प्रवक्ता 5 मिनट भी नहीं टिकेंगे.
2-
स्वामी जी के पास कांग्रेस का वास्तविक इतिहास का साक्ष्य है और कांग्रेस के कारनामो का काला चिटठा है…………………………………………………………………………?
3-
अभी तो बात आएगी मंच पर बहस की, जिसकी की आगे के किसी भी चुनाव में जोर 
देकर मांग की जायेगी, तब ये अज्ञानी प्रवक्ता मंच पर जनता को क्या जवाब देंगे, सरकार हर साल लोगों से 134 प्रकार के टैक्स से कितना पैसा जमा कराती है और ये पैसे कहा खर्च हो जाते है? मंदिरों का पैसा सरकार किस मद में खर्च कराती है जिसे सिर्फ हिन्दू दान देकर इकठ्ठा करता है, ये बहुत बड़ा प्रश्न है……………………………………………………?.
4-
मंच पर ये बहस नहीं होगी की क्या विकास किया, बहस होगी की राहुल, सोनिया,  चिदंबरम,  पवार, मनमोहन, विलासराव देशमुख, अहमद पटेल, प्रणव मुखर्जी जैसे लोंगो के भी काले धन के खाते है क्या………………………………………………………………………
5-
काले धन का इतिहास क्या है, पहले कपिल सिब्बल ने कहा कोई भी नुकसान २ जी घोटाले में नहीं हुआ है, फिर अहलुवालिया ने कहा की हा वास्तव में कोई घोटाला नहीं हुआ है, फिर मनमोहन ने कहा इसकी जाँच चल रही है, विपक्ष को टालते रहे, राजा जैसा आदमी जिसके पास अपनी मोबाइल को टाप अप करने का पैसा नहीं हो, यदि वह अपनी पत्नी के नाम 3000 करोड़ रुपया मारीशाश में जमा कर दे, क्या यह सब बिना सोनिया की जानकारी के कर सकता है, उस पार्टी में जहा पर बिना सोनिया के पूछे कोई वक्तव्य तथाकथित प्रवक्ता नहीं दे सकते है

                                  फिरआया महा घोटाला देवास-इसरो डील का जिसमे की 205000 करोड़ की बैंड विड्थ को मात्र 1200 करोड़ के 10 साल के उधार के पैसे में दे दिया गया, भला हो सुब्रमनियम स्वामी जी का जिन्हें इन चोरो को नंगा कर दिया, हमारी कांग्रेसीऔर विदेशी मिडिया सुब्रमनियम स्वामी की तस्वीर हमेशा से गलत पेश किया है  जब की वास्तव में भारत देश को ऐसे ही इमानदार नेताओ की जरुरत है जिसने कभी भी चोरी के बारे में सोचा ही नहींफिर आया कामनवेल्थ खेल का 90000 करोड़ का घोटाला, फिर कोयला का घोटाला जिसमे ठेकेदारों द्वारा 10 पैसे प्रति किलो के भाव से कोयला खरीदा जाता है और उसे बाजार में 4 रुपये किलो तक बेचा जाता है, यह रकम अब तक 26 लाख करोड़ होती है………………………………………………………………………………………………..?
6-
इटली के 8 बैंक और स्वीटजरलैंड के 4 बैंको को 2005 में भारत में क्यों खोला गया
है और इसमे किसका पैसा जमा होता है, ये बैंक किसको लोन देते है और इनका ब्याज क्या है, इनकी जरुरत क्यों आ पड़ी भारत में जब की भारत के ही बैंकरों की बैंक खोलने की अर्जियाँ सरकार के पास धूल खा रही है, इन बैंको को चोरी छुपे क्यों खोला गया है, इन बैंको आवश्यकता क्यों है जब भारत में 80% लोग 20 रूपया प्रतिदिन से भी कम कमाते है.
7-
भारतके किसानो से कमीशन लेने वाले चोर कत्रोची के बेटे को अंदमान दीप समूह में
तेल की खुदाई का ठेका क्यों दिया गया 2005 में, किसने दिया ठेका, किसके कहने पर दिया ठेका, क्या वहा पर पहले से ही तेल के कुऊ का पता लगाकर वह स्थान इसे दे दिया गया जैसे की बहुत बार खबरों में अन्य संदर्भो में आती है, यह खबर क्यों छुपाई गयी अब तक, इसे देश को क्यों नहीं बताया गयामिडिया क्यों इसे छुपा गई, और विपक्ष ने इसे मुद्दा क्यों नहीं बनाया…………………………………………………………………………………….?.
8-
सरकार ने पहले कहा की बाबा बकवास कर रहे है, काला धन नाम की कोई चीज नहीं है,
9-
फिर खबर आयी की काला धन है और सबसे ज्यादा भारतीयों का है, यह स्विस बैंको के आलावा 70 और दुसरे देसों में जमा है……………………………………………………….?
10-
सरकार ने कहा की टैक्स चोरी का मामला है, हम उन देशो से समझौते कर रहे है, जिससे की दोहरा कर न देना पड़े ?

Thursday, March 24, 2011

असंख्य समस्याओं का एकमात्र हल

विचार-क्रान्ति



                                                                      दुर्भाग्य को क्या कहा जाय जिसने हमारी विचार प्रणाली में विष घोल दिया और हम हर बात को उलटे ढंग से सोचने लगे । इस उल्टी बुद्धि का एक छोटा-सा नमूना देखा जाय । कई लोगों में सन्तान या लडक़ा नहीं होता । वस्तुत: यह लोग बहुत ही सुखी और सौभाग्यशाली हैं । बढ़ती हुई आबादी में और बढ़ोत्तरी करना - अन्न के लिए पराश्रित नागरिकों के लिए एक विशुद्ध पातक है । इन दिनों जो जितनी संतान बढ़ा रहा है वह देश को उतना ही संकट में डाल रहा है । इस पाप से जिन्हें अनायास की छुट्टी मिल गई वे सचमुच सौभाग्यवान हैं । बच्चों के पालन-पोषण से लेकर उन्हें स्वावलम्बी बनाने तक की प्रक्रिया कितनी महॅंगी और कष्टसाध्य है इसे सब जानते हैं । जितना श्रम, मनोयोग एवं खर्च लडक़े के लिये करना पड़ता उतना ही यदि भगवान के लिये किया जाय तो निस्सन्देह इसी जन्म में भगवान मिल सकता है । वही अनुदान यदि परमार्थ प्रयोग के लिए लगाया जाय तो उतने से ही असंख्य लोगों को प्रेरणा देने वाली एक संस्था चल सकती है । आजकल के लडक़े बड़े होने पर अभिभावकों को केवल दु:ख ही देते हैं । अपने हाथों की कमाई भी किसी अच्छे काम के लिये खर्च करनी हो तो लडक़े उसे रोकते हैं, वे चाहते हैं हराम का सारा माल हमें ही मिले, यहॉं तक कि अपनी बहिनों को देता देखें तो भी कुढ़ते और विरोध करते हैं ।



कोई यह चाहता हो कि लडक़े का बाप बनकर बुढ़ापे का आधार मिल जाएगा तो और भी दुराशा मात्र हैं । कुत्ता पराये घर रहकर जिसका कुछ प्रयोजन पूरा करता है उसी के यहॉं रोटी पा लेता है । इसी तरह मनुष्य के लिये यह सोचना कि बेटे बिना बुढ़ापा न कटेगा नितान्त मूर्खता हैं । सुख-सौभाग्य से भरा-पूरा मनुष्य भी एक कल्पित अभाव को गढक़र उस कारण कितना उद्विग्न होता है ।



अगले दिनों जब मानव जाति के उत्थान-पतन का सूक्ष्म विवेचन किया जाएगा तब समीक्षकों और अन्वेषकों को एक स्वर में यही स्वीकार करना पड़ेगा कि विकृतियों और उलझनों के इस युग में समस्त विपत्तियों की जननी विकृत विचारधारा की अभिवृद्धि ही थी और उसे पलटने के लिए केवल मात्र एक ही प्रयोग द्वारा सुव्यवस्थित रूप से कार्य हुआ और उस प्रयोग का नाम था - युग निर्माण योजना द्वारा संचालित ज्ञान-यज्ञ ।





युग निर्माण योजना

Sunday, March 13, 2011

वेदव्यास की अंर्तव्यथा

वेदव्यास की अंर्तव्यथा

‘‘आपके चेहरे पर खिन्नता के चिन्ह्न !’’ आगंतुक ने सरस्वती नदी के तट पर, आश्रम के निकट बैठे हुए मनीषी के मुखमंडल पर छाए भावों को पढ़ते हुए कहा। इधर विगत कई दिनों से वह व्यथित थे। नदी के तट पर बैठकर घंटों विचारमग्न रहना, शून्य की ओर ताकते रहना, उनकी सामान्य दिनचर्या बन गई थी। आज भी कुछ उसी प्रकार बैठे थे।
आगंतुक के कथन से विचार-शृंखला टूटी। ‘‘अरे, देवर्षि आप!’’ चेहरे पर आश्चर्य व प्रसन्नता की मिली-जुली अभिव्यक्ति झलकी।
‘‘पर आप व्यथित क्यों हैं?’’ उन्होंने पास पड़े आसन पर बैठते हुए कहा-‘‘पीड़ा-निवारक को पीड़ा वैद्य को रोग-कैसी विचित्र स्थिति है!’’
‘‘विचित्रता नहीं, विवशत कहिए। इसे उस अंतव्र्यथा के रूप में समझिए, जो पीड़ा-निवारक को सामने पड़े पीडि़त को देखकर, उसके कष्टï हरने में असफल होने पर होती है। वैद्य को उस समय होती है, जब वह सामने पड़े रोगी को स्वस्थ कर पाने में असफल हो जाता है।’’
कुछ रुककर उन्होंने गहरी श्वास ली और पुन: वाणी को गति दी-‘‘व्यक्ति और समाज के रूप मेें मनुष्य सन्निपात के रोग से ग्रस्त है। कभी हँसता है, कुदकता-फुदकता है, कभी अहंकार के ठस्से में अकड़ा रहता है। परस्पर का विश्वास खो जाने पर आचार-विचार का स्तर कैसे बने? जो थोड़ा-बहुत दिखाई देता है, वह अवशेषों का दिखावा भर है।
‘‘और परिवार...............इतना कहकर उनके मुख पर एक क्षीण मुस्कान की रेखा उभरी,नजर उठाकर सामने बैठे देवर्षि की ओर देखा-‘‘इनकी तो और भी करुण दशा है। इनमें मोह रह गया है, प्रेम मर गया है। मोह भी तब तक, जब तक स्वार्थ सधे। विवाहित होते ही संतानें माँ-बाप को तिलांजलि दे देती हैं। सारी रीति ही उलटी है- उठे को गिराना, गिरे को कुचलना, कुचले को मसलना, यही रह गया है। आज मनुष्य और पशु में भेद आचार-विचार की दृष्टिï से नहीं वरन् आकार-प्रकार की दृष्टिï से है।’’ कहते-कहते ऋषि का चेहरा विवश हो गया। भावों को जैसे-तैसे रोकते हुए धीरे से कहा-‘‘देवता बनने जा रहा मनुष्य पशु से भी गया-गुजरा हो रहा है।’’
‘‘महर्षि! व्यास आप तो मनीषियों के मुकुटमणि हैं।’’ जैसे कुछ सोचते हुए देवर्षि ने कहा-‘‘आपने प्रयास नहीं किये?’’
‘‘प्रयास!......प्रयास किए बिना भला जीवित कैसे रहता। जो भटकी मानवता को राह सुझाने हेतु प्रयत्नरत नहीं है, हाथ-पर हाथ धरे बैठा है, स्वयं की बौद्धिकता के अहं से ग्रस्त है, उसे मनीषी कहलाते, यहाँ तक कि जीवित रहने का कभी हक नहीं है।’’
‘‘किस तरह के प्रयास किए?’’
‘‘मानवीय बुद्घि के परिमार्जन हेतु प्रयास। इसके लिए वैदिक मंत्रों का पुन: वर्गीकरण किये, कर्मकांडों का स्वरूप सँवारा, ताकि मंत्रों में निहित दिव्य-भावों को ग्रहण करने में सुभीता हो, पर........।’’
‘‘पर क्या?’’
‘‘प्राणों को छोडक़र लोग सिर्फ कर्मकांडों के कलेवर से चिपट गए। वेद, अध्ययन की जगह पूजा की वस्तु बन गए। यहीं तक सीमित रहता, तब भी गनीमत थी। इनकी ऊटपटांग व्याख्याएँ करके जाति-भेद की दीवारें खड़ी की जाने लगीं।
‘‘फिर .......?’’
‘‘ पुराणों की रचना की-जिसका उद्ïदेश्य था, वेद में निहित सत्य-सद्ïविचार को कथाओं के माध्यम से जन-जन के गले उतारा जा सके जिससे बौद्धिकता के उन्माद का शमन हो । किंतु.......।’’
‘‘किंतु क्या?’’
‘‘यह प्रयास भी आंशिक सफल रहा। सहयोगियों ने स्मृतियाँ रचीं, पर ये सब बुद्धिमानों के जीविकोपार्जन का साधन बनकर रह गए, जन-जन के मानस में फेर-बदल करने का अभियान पूरा नहीं हुआ-बुद्धि सुधरी नहीं, अहं गया नहीं, परिणाम महाभारत के यद्धोन्माद के रूप में सामने आया। विज्ञान धन का का गुलाम और धन दुर्बुद्धि के हाथ की कठपुतली, सारे साधन इसी के इर्द-गिर्द। अपने को ज्ञानी कहते व विद्वान-बुद्धिमान, बलवान्ï समझने वाले, सभी दुर्बुद्धि के दास पर सिद्ध हुए। देश और समाज का वैभव एक बार फिर चकनाचूर हुआ, पर मैं अकेले चलता रहा-प्रयासों में शिथिलता नहीं आने दें।’’ महर्षि के स्वर में उत्साह था और देवर्षि के चेहरे पर उत्सुकता झलक रही थी।
कुछ रुककर बोले-‘‘महाभारत की रचना की, मानवीय कुकृत्यों की वीभत्सता का चित्रण किया। सत्कर्मो की राह दिखाई-वह सभी कुछ ढँूढक़र सँजोया, जिसका अवलंबन ले मानव सुधर सके-सँवर सके। बुद्धि विगत से सीख सके, पर परिणाम वही-ढाक के तीन पात।’’
तो क्या प्रयास से विरत हो गए महर्षि?’’-देवर्षि का स्वर था। ‘‘नहीं-विरत क्यों होता? कत्र्तव्यनिष्ठïा का ही दूसरा नाम मनुष्यता है। एक मनीषी का जो कत्र्तव्य है, अंतिम साँस तक अनवरत करता रहूँगा।’’
‘‘सचमुच यही है निष्ठïा?’’
‘‘हाँ तो महाभारत, का समुचित प्रभाव न देखकर यह सोच उभरी कि शायद इतने विस्तृत ग्रंथ को लोग समयाभाव के कारण पढ़ न सके हों? इस कारण ब्रह्मïसूत्र की रचना की। सरल सूत्रों से जीवन-जीने के आवश्यक तत्वों को सँजोया। एकता-समता की महत्ता बताई । एक ही परमसत्ता हर किसी में समाहित है- कहकर, भाईचारे की दिव्यता तुममें है-कहकर, स्वयं को दिव्य बनाने-अपना उद्धार करने की प्रेरणा दी। पर हाय री मानवी बुद्धि! तूने ग्रहणशीलता तो जैसे सीखी नहीं। पंडिताभिमानियों ने इस पर बुद्धि की कलाबाजियाँ खाते हुए तरह-तरह के भाष्य लिखने शुरू कर दिए, शास्त्रार्थ की कबड्ïडी खेलनी शुरू कर दी। जीवन-जीने के सूत्रों का यह ग्रंथ अखाड़ा बनकर रह गया।
‘‘अब पुन: समाधान की तलाश में हूँ। अंतव्र्यथा का कारण यह नहीं है कि मेरे प्रयास असफल हो गए अपितु मानव की दुर्दशा, दुर्मति-जन्य दुर्गति देखी नहीं जाती । असह्यï बेचैनी है अंदर, पर क्या करूँ? राह नहीं सूझ रहा।’’ कहकर वह आशाभरी नजरों से देवर्षि की ओर देखने लगे।
देवर्षि का सत्परामर्श
‘‘समाधान है।’’
‘‘क्या?-स्वर उल्लासपूर्ण था, जैसे सृष्टिï का वैभव एक साथ आ जुड़ा हो।
‘‘भाव-संवेदनाओं का जागरण-इसे दूसरे शब्दों में सोई हुई आत्मा का जागरण भी कह सकते हैं।’’
‘‘और अधिक स्पष्टï करें। ’’
‘‘आपने मानव-जीवन की विकृति को पहचाना, अब प्रकृति को और गहराई से पहचानिए, निदान मिल जाएगा। ’’
‘‘क्या है प्रकृति?’’
‘‘मनुष्य के सारे क्रियाकलाप अहं-जन्य हैं और बुद्धि-मन-इंद्रियाँ सब बेचारे इसी के गुलाम हैं। मानवीय सत्ता का केंद्र आत्मा है, यह परमात्मसत्ता अर्थात्ï सरसता, सक्रियता और उन्नत भावों के समुच्चय का अंश है। आत्मा का जागरण अर्थात्ï उन्नत भावों-दिव्य संवेदनाओं का जागरण। न केवल जागृति वरन्ï सक्रियता, श्रेष्ठï कार्यों के लिए-दिव्य-जीवन के लिए। ’’
‘‘पर भाव तो बहुत कोमल होते हैं?’’-महर्षि के स्वरों में हिचकिचाहट थी।
‘‘नहीं-ये एक साथ कोमल और कठोर दोनों हैं। सत्प्रवृत्तियों के लिए पुष्प जैसे कोमल, उनमें सुगंध भरने वाले और दुष्प्रत्तियों के लिए वज्र की तरह, एक ही आघात में उन्हें छितरा देने वाले।......भावों के जागते ही उनका पहला प्रहार अहंकार पर होता है। उसके टूटते-बिखरते ही मन और बुद्धि आत्मा के अनुगामी बन जाते हैं। मन तब उन्नत कल्पनाएँ करता है, बुद्धि हितकारक समाधान सोचती है। भाव-संवेदनाओं का जागरण एकमेव समाधान है-व्यक्ति विशेष का ही नहीं........समूचे मानव-समूह का। मन और बुद्धि, दोनों को कुमार्ग के भटकाव से निकालकर सन्मार्ग पर लगा देने की क्षमता भाव संवेदनाओं में
ही है। ’’
‘‘पर मानवीय बुद्धि बड़ी विचित्र है। कहीं भावों की जगह कुत्सा न भडक़ा लें? ’’
‘‘आपकी आशंका निराधार नहीं है, महर्षि! किंतु इस कारण भयभीत होकर पीछे हटना आवश्यक नहीं है। आवश्यक है सावधानी और जागरूकता-भाव कर्मोन्मुख होंगे-लोकहितकारी लक्ष्यों के लिए ही भाव-संवेदना का आह्वïान किया जाएगा भावों के अमृत को सद्ïविचारों के पात्रों में ही सँजोया जाएगा, विवेक की छलनी से उन्हें छाना जाएगा तो परिणाम सुखकारक ही होंगे। लेखनी से प्राण फूँकिए-जनमानस के मर्म को इस तरह स्पर्श करिए कि हर किसी की संवेदना-सदाशयता फडफ़ड़ा उठे। आत्मचेतना अकुलाकर कह उठे।-‘‘नत्वहं कामये राज्यंï न सौख्यं ना पुनर्भवम्ï। कामये दु:ख तप्तानां प्राणिनां आर्त नाशनम्ï ।’’
‘‘जनसमूह की आत्मा अभी मरी नहीं है-मूर्छित भर है। इस मूर्छित लक्ष्मण को सचेतन, सत्कर्म में तत्पर और राम-काज में निरत करने के लिए संजीवनी चाहिए। यह संजीवनी है- भाव-संवेदना। दे सकेंगे आप? यदि दे सकें तो विश्वास करें-स्थिति कितनी ही जटिल क्यों न हो, अँधेरा कितना ही सघन क्यों न हो, आत्मा के दिव्य भावों का तेज व प्रकाश उसे तहस-नहस करने में समर्थ हो सकेगा।
‘‘भाव चेतना का जागरण होते ही मनुष्य एक बार पुन:सिद्ध कर सकेगा कि वह ईश्वर-पुत्र है- दिव्यजीवन जीने में समक्ष है, वह धरती का देवता है और धरती को ‘स्वर्गादपि गरीयसी, बना सकता है, किन्तु.....कहकर देवर्षि ने महर्षि की ओर देखा।
‘‘किन्तु क्या? ‘‘ व्यास के चेहरे पर ढृढ़ता थी।
‘‘वेदव्यास के साथ उनके शिष्य-परिकर को जुटना पड़ेगा-उनके द्वारा विनिर्मित संजीवनी को जन-जन तक पहुँचाने में। आपके द्वारा सृजित भाव-मेघों को आपके शिष्य वायु की तरह धारण करके हर दिशा और हर क्षेत्र में तथा आपके द्वारा उत्पन्न इस सुगंध को जन-जन के हृदयों तक पहुँचाएँ, इस कार्य को युगधर्म व युगयज्ञ मानकर चलें-तभी सफलता संभव होगी। ‘‘
‘‘शिष्य-परिकर अपना सर्वस्व होम कर भी युगपरिवर्तन का यह यज्ञ पूरा करेगा।’’-महर्षि के शब्दों में विश्वास था।
‘‘तो मानव-जीवन को दिव्य बनने -आज की परिस्थितियाँ कल उलटने में देर नहीं। ‘‘-देवर्षि मुस्कराए।
‘‘मिल गया समाधान’’ -वेदव्यास ने भावविह्वïल स्वरों में देवर्षि को माथा नवाया। वह जुट गए युग की भागवत रचने और शिष्यों द्वारा उसे जन-जन तक पहुँचाने में ।
और नारद? वे चल दिए, फिर किसी की संवेदनाओं को उमगाने और उसे समाधान सुझाने हेतु।