असंख्य समस्याओं का एकमात्र हल
विचार-क्रान्ति
दुर्भाग्य को क्या कहा जाय जिसने हमारी विचार प्रणाली में विष घोल दिया और हम हर बात को उलटे ढंग से सोचने लगे । इस उल्टी बुद्धि का एक छोटा-सा नमूना देखा जाय । कई लोगों में सन्तान या लडक़ा नहीं होता । वस्तुत: यह लोग बहुत ही सुखी और सौभाग्यशाली हैं । बढ़ती हुई आबादी में और बढ़ोत्तरी करना - अन्न के लिए पराश्रित नागरिकों के लिए एक विशुद्ध पातक है । इन दिनों जो जितनी संतान बढ़ा रहा है वह देश को उतना ही संकट में डाल रहा है । इस पाप से जिन्हें अनायास की छुट्टी मिल गई वे सचमुच सौभाग्यवान हैं । बच्चों के पालन-पोषण से लेकर उन्हें स्वावलम्बी बनाने तक की प्रक्रिया कितनी महॅंगी और कष्टसाध्य है इसे सब जानते हैं । जितना श्रम, मनोयोग एवं खर्च लडक़े के लिये करना पड़ता उतना ही यदि भगवान के लिये किया जाय तो निस्सन्देह इसी जन्म में भगवान मिल सकता है । वही अनुदान यदि परमार्थ प्रयोग के लिए लगाया जाय तो उतने से ही असंख्य लोगों को प्रेरणा देने वाली एक संस्था चल सकती है । आजकल के लडक़े बड़े होने पर अभिभावकों को केवल दु:ख ही देते हैं । अपने हाथों की कमाई भी किसी अच्छे काम के लिये खर्च करनी हो तो लडक़े उसे रोकते हैं, वे चाहते हैं हराम का सारा माल हमें ही मिले, यहॉं तक कि अपनी बहिनों को देता देखें तो भी कुढ़ते और विरोध करते हैं ।
कोई यह चाहता हो कि लडक़े का बाप बनकर बुढ़ापे का आधार मिल जाएगा तो और भी दुराशा मात्र हैं । कुत्ता पराये घर रहकर जिसका कुछ प्रयोजन पूरा करता है उसी के यहॉं रोटी पा लेता है । इसी तरह मनुष्य के लिये यह सोचना कि बेटे बिना बुढ़ापा न कटेगा नितान्त मूर्खता हैं । सुख-सौभाग्य से भरा-पूरा मनुष्य भी एक कल्पित अभाव को गढक़र उस कारण कितना उद्विग्न होता है ।
अगले दिनों जब मानव जाति के उत्थान-पतन का सूक्ष्म विवेचन किया जाएगा तब समीक्षकों और अन्वेषकों को एक स्वर में यही स्वीकार करना पड़ेगा कि विकृतियों और उलझनों के इस युग में समस्त विपत्तियों की जननी विकृत विचारधारा की अभिवृद्धि ही थी और उसे पलटने के लिए केवल मात्र एक ही प्रयोग द्वारा सुव्यवस्थित रूप से कार्य हुआ और उस प्रयोग का नाम था - युग निर्माण योजना द्वारा संचालित ज्ञान-यज्ञ ।
युग निर्माण योजना
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