Saturday, August 11, 2012

आर्थिक और राजनैतिक हैसियत से तय होती है भाषा की ताकत






                                   आधुनिक दौर में बोली के रूप में तो हिंदी समृद्ध हो रही है, लेकिन ज्ञान की भाषा के रूप में हिंदी की स्थिति चिंताजनक है। हिंदी भाषा का इतिहास काफी प्राचीन है। हिंदी पारसी भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ होता है हिंदी का या हिंद से संबंधित। इस शब्द की उत्पत्ति सिंधु.सिंध से हुई है। इरानी भाषा में स को ह बोला जाता था। वर्तमान में हम जिस हिंदी भाषा को जानते हैं, वह आधुनिक आर्य भाषाओं में एक है। आर्य भाषा का प्राचीनतम् रूप वैदिक संस्कृत है। संस्कृत उस समय की बोल.चाल की भाषा थी। करीब ५०० ईसा पूर्व के बाद तक आधारभूत बोलचाल की भाषा संस्कृत काफी बदल गई। जिसे पालि कहा गया। कालांतर में पालि भाषा भी अपभ्रंशित होकर पाकृत भाषा बनी। समय के साथ.साथ भाषा अपभ्रंशित होती रही। १००० ई के आसपास अपभ्रंश से विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से आधुनिक आर्य भाषा का जन्म हुआ। अपभ्रंश से ही हिंदी का भी जन्म हुआ। देश की आजादी के बाद १४ सितंबर १९४९ में हिंदी भाषा को देश की संविधान सभा ने राष्ट्रीय ऑफिशियल लैंग्वेज के रूप में घोषित किया गया है। इसके बाद से ही इस दिन को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
                                 आमतौर पर यह माना जाता है कि हिंदी भाषा का सबसे अधिक संघर्ष बोलियों और स्थानीय भाषाओं से है। इस भाषायी संघर्ष में राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को सबसे ज्यादा खतरा है। यह विचार उचित प्रतीत नहीं होता है। व्यवहारिक रूप में देखा जाए तो हिंदी का बोलियों और क्षेत्रीय भाषाओं के साथ टकराव का छद्म वातावरण तैयार किया जा रहा है। वास्तविकता यह है कि बोलियों और स्थानीय भाषाओं से ही हिंदी बोलचाल की भाषा के रूप में समृद्ध हो रही है। चाहे वह मराठी,भोजपुरी, मैथिल, छत्तीसगढ़ी आदि स्थानीय भाषाएं हों या अन्य बोलियां। इनसे हिंदी ने काफी कुछ ग्रहण किया है। हालांकि इसके बावजूद हिन्दी ज्ञान की भाषा के रूप में काफी पीछे हो चली है। जो हिंदी प्रेमियों के लिए चिंता की बात है। आधुनिक युग इलेक्ट्रॉनिक व संचार साधनों एवं उन्नत तकनीक का है। इन तकनीको को विकसित करने में अंग्रेजी भाषा की ही भूमिका रही है। हिंदी भाषा कभी भी तकनीकी भाषा नहीं बन पाई। जिसकी पृष्ठभूमि में राजनीतिक और आर्थिक हैसियत ही रही।
                                किसी देश, राज्य या स्थान की राजनैतिक और आर्थिक हैसियत से ही भाषा की ताकत तय होती है। एक समय था जब विश्व पटल पर सोवियत रूस एक बड़ी ताकत था। आर्थिक रूप से भी और राजनैतिक रूप से भी। उस वक्त पूरे विश्व में रूसी भाषा सीखने के लिए लोग लालायित रहते थे और उनकी बड़ी संख्या थी। सोवियत रूस के विघटन के बाद अमेरीका, ब्रिटेन और चीन आर्थिक ताकत बने और उनकी राजनैतिक हैसियत भी बढ़ी। उसके बाद से अमेरीकन अंग्रेजी और चीनी भाषा का फैलाव जबरदस्त तरीके से हुआ। इन देशों की भाषाएं वहां की जनभाषा के साथ.साथ ज्ञान की भाषा के रूप में भी समृद्ध हुई। इधर, आधुनिक समय में भारत विश्व के लिए बड़ा बाजार बन कर उभर रहा है। जिसका असर यह है कि हिंदी सीखने के प्रति विदेशियों का रुझान भी बढ़ा है। हालांकि इससे हिंदी केवल एक बोली के तौर पर ही समृद्ध होगी। राजनैतिक और आर्थिक हैसियत के रूप में अभी भारत विश्व के सर्वोच्च शिखर पर नहीं है।
                               किसी भी भाषा में समृद्ध शब्दकोश होना ही भाषा के विकास के लिए पर्याप्त नहीं है। जिस तेजी से अंग्रेजी का विकास हुआ है और पूरे विश्व की संपर्क भाषा बनी हुई है, उसका आशय यह बिल्कुल नहीं है कि अंग्रेजी शब्दकोश में अधिक और समृद्ध शब्द हैं। हिंदी के अलावा जर्मन, फ्रेंच आदि विदेशी भाषाओं के शब्दकोश समृद्ध हैं, लेकिन वे पूरी तरह संपर्क भाषा नहीं बन सके हैं। भाषा के विकास और विस्तार के लिए जिस देश में वह भाषा बोली जाती है,उसका बाजार बड़ा और आर्थिक व राजनैतिक हैसियत विश्व को प्रभावित करने वाली होनी चाहिए।
                                हिंदी को लेकर वर्तमान पीढ़ी की मानसिकता में बदलाव लाना होगा। आज की पढ़ी.लिखी पीढ़ी अपने घरों में क्षेत्रीय बोली या हिंदी में भले ही बात करती हो, लेकिन जब वह घर से बाहर निऽलती है तो उनकी जुबान में अंग्रेजी रहती है। देश में हिंदी के विकास में हिंदी फिल्मों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। हिंदी फिल्मों के कारण कई गैर हिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी, लेकिन आधुनिक दौर में युवा पीढ़ी टीवी व अन्य संचार साधनों में अपने नायक-.नायिकाओं को फर्राटेदार अंग्रेजी बोलता देखकर उनके अनुसार खुद को ढालने की भी कोशिश करती है। अंग्रेजी को अच्छा और हिंदी को गंवारों की भाषा समझने की मानसिकता जब तक नहीं बदलेगी, देश में हिंदी को समृद्ध करना मुष्किल होगा।

विक्रांत पाठक [ लेखक ]