Thursday, March 24, 2011

असंख्य समस्याओं का एकमात्र हल

विचार-क्रान्ति



                                                                      दुर्भाग्य को क्या कहा जाय जिसने हमारी विचार प्रणाली में विष घोल दिया और हम हर बात को उलटे ढंग से सोचने लगे । इस उल्टी बुद्धि का एक छोटा-सा नमूना देखा जाय । कई लोगों में सन्तान या लडक़ा नहीं होता । वस्तुत: यह लोग बहुत ही सुखी और सौभाग्यशाली हैं । बढ़ती हुई आबादी में और बढ़ोत्तरी करना - अन्न के लिए पराश्रित नागरिकों के लिए एक विशुद्ध पातक है । इन दिनों जो जितनी संतान बढ़ा रहा है वह देश को उतना ही संकट में डाल रहा है । इस पाप से जिन्हें अनायास की छुट्टी मिल गई वे सचमुच सौभाग्यवान हैं । बच्चों के पालन-पोषण से लेकर उन्हें स्वावलम्बी बनाने तक की प्रक्रिया कितनी महॅंगी और कष्टसाध्य है इसे सब जानते हैं । जितना श्रम, मनोयोग एवं खर्च लडक़े के लिये करना पड़ता उतना ही यदि भगवान के लिये किया जाय तो निस्सन्देह इसी जन्म में भगवान मिल सकता है । वही अनुदान यदि परमार्थ प्रयोग के लिए लगाया जाय तो उतने से ही असंख्य लोगों को प्रेरणा देने वाली एक संस्था चल सकती है । आजकल के लडक़े बड़े होने पर अभिभावकों को केवल दु:ख ही देते हैं । अपने हाथों की कमाई भी किसी अच्छे काम के लिये खर्च करनी हो तो लडक़े उसे रोकते हैं, वे चाहते हैं हराम का सारा माल हमें ही मिले, यहॉं तक कि अपनी बहिनों को देता देखें तो भी कुढ़ते और विरोध करते हैं ।



कोई यह चाहता हो कि लडक़े का बाप बनकर बुढ़ापे का आधार मिल जाएगा तो और भी दुराशा मात्र हैं । कुत्ता पराये घर रहकर जिसका कुछ प्रयोजन पूरा करता है उसी के यहॉं रोटी पा लेता है । इसी तरह मनुष्य के लिये यह सोचना कि बेटे बिना बुढ़ापा न कटेगा नितान्त मूर्खता हैं । सुख-सौभाग्य से भरा-पूरा मनुष्य भी एक कल्पित अभाव को गढक़र उस कारण कितना उद्विग्न होता है ।



अगले दिनों जब मानव जाति के उत्थान-पतन का सूक्ष्म विवेचन किया जाएगा तब समीक्षकों और अन्वेषकों को एक स्वर में यही स्वीकार करना पड़ेगा कि विकृतियों और उलझनों के इस युग में समस्त विपत्तियों की जननी विकृत विचारधारा की अभिवृद्धि ही थी और उसे पलटने के लिए केवल मात्र एक ही प्रयोग द्वारा सुव्यवस्थित रूप से कार्य हुआ और उस प्रयोग का नाम था - युग निर्माण योजना द्वारा संचालित ज्ञान-यज्ञ ।





युग निर्माण योजना

Sunday, March 13, 2011

वेदव्यास की अंर्तव्यथा

वेदव्यास की अंर्तव्यथा

‘‘आपके चेहरे पर खिन्नता के चिन्ह्न !’’ आगंतुक ने सरस्वती नदी के तट पर, आश्रम के निकट बैठे हुए मनीषी के मुखमंडल पर छाए भावों को पढ़ते हुए कहा। इधर विगत कई दिनों से वह व्यथित थे। नदी के तट पर बैठकर घंटों विचारमग्न रहना, शून्य की ओर ताकते रहना, उनकी सामान्य दिनचर्या बन गई थी। आज भी कुछ उसी प्रकार बैठे थे।
आगंतुक के कथन से विचार-शृंखला टूटी। ‘‘अरे, देवर्षि आप!’’ चेहरे पर आश्चर्य व प्रसन्नता की मिली-जुली अभिव्यक्ति झलकी।
‘‘पर आप व्यथित क्यों हैं?’’ उन्होंने पास पड़े आसन पर बैठते हुए कहा-‘‘पीड़ा-निवारक को पीड़ा वैद्य को रोग-कैसी विचित्र स्थिति है!’’
‘‘विचित्रता नहीं, विवशत कहिए। इसे उस अंतव्र्यथा के रूप में समझिए, जो पीड़ा-निवारक को सामने पड़े पीडि़त को देखकर, उसके कष्टï हरने में असफल होने पर होती है। वैद्य को उस समय होती है, जब वह सामने पड़े रोगी को स्वस्थ कर पाने में असफल हो जाता है।’’
कुछ रुककर उन्होंने गहरी श्वास ली और पुन: वाणी को गति दी-‘‘व्यक्ति और समाज के रूप मेें मनुष्य सन्निपात के रोग से ग्रस्त है। कभी हँसता है, कुदकता-फुदकता है, कभी अहंकार के ठस्से में अकड़ा रहता है। परस्पर का विश्वास खो जाने पर आचार-विचार का स्तर कैसे बने? जो थोड़ा-बहुत दिखाई देता है, वह अवशेषों का दिखावा भर है।
‘‘और परिवार...............इतना कहकर उनके मुख पर एक क्षीण मुस्कान की रेखा उभरी,नजर उठाकर सामने बैठे देवर्षि की ओर देखा-‘‘इनकी तो और भी करुण दशा है। इनमें मोह रह गया है, प्रेम मर गया है। मोह भी तब तक, जब तक स्वार्थ सधे। विवाहित होते ही संतानें माँ-बाप को तिलांजलि दे देती हैं। सारी रीति ही उलटी है- उठे को गिराना, गिरे को कुचलना, कुचले को मसलना, यही रह गया है। आज मनुष्य और पशु में भेद आचार-विचार की दृष्टिï से नहीं वरन् आकार-प्रकार की दृष्टिï से है।’’ कहते-कहते ऋषि का चेहरा विवश हो गया। भावों को जैसे-तैसे रोकते हुए धीरे से कहा-‘‘देवता बनने जा रहा मनुष्य पशु से भी गया-गुजरा हो रहा है।’’
‘‘महर्षि! व्यास आप तो मनीषियों के मुकुटमणि हैं।’’ जैसे कुछ सोचते हुए देवर्षि ने कहा-‘‘आपने प्रयास नहीं किये?’’
‘‘प्रयास!......प्रयास किए बिना भला जीवित कैसे रहता। जो भटकी मानवता को राह सुझाने हेतु प्रयत्नरत नहीं है, हाथ-पर हाथ धरे बैठा है, स्वयं की बौद्धिकता के अहं से ग्रस्त है, उसे मनीषी कहलाते, यहाँ तक कि जीवित रहने का कभी हक नहीं है।’’
‘‘किस तरह के प्रयास किए?’’
‘‘मानवीय बुद्घि के परिमार्जन हेतु प्रयास। इसके लिए वैदिक मंत्रों का पुन: वर्गीकरण किये, कर्मकांडों का स्वरूप सँवारा, ताकि मंत्रों में निहित दिव्य-भावों को ग्रहण करने में सुभीता हो, पर........।’’
‘‘पर क्या?’’
‘‘प्राणों को छोडक़र लोग सिर्फ कर्मकांडों के कलेवर से चिपट गए। वेद, अध्ययन की जगह पूजा की वस्तु बन गए। यहीं तक सीमित रहता, तब भी गनीमत थी। इनकी ऊटपटांग व्याख्याएँ करके जाति-भेद की दीवारें खड़ी की जाने लगीं।
‘‘फिर .......?’’
‘‘ पुराणों की रचना की-जिसका उद्ïदेश्य था, वेद में निहित सत्य-सद्ïविचार को कथाओं के माध्यम से जन-जन के गले उतारा जा सके जिससे बौद्धिकता के उन्माद का शमन हो । किंतु.......।’’
‘‘किंतु क्या?’’
‘‘यह प्रयास भी आंशिक सफल रहा। सहयोगियों ने स्मृतियाँ रचीं, पर ये सब बुद्धिमानों के जीविकोपार्जन का साधन बनकर रह गए, जन-जन के मानस में फेर-बदल करने का अभियान पूरा नहीं हुआ-बुद्धि सुधरी नहीं, अहं गया नहीं, परिणाम महाभारत के यद्धोन्माद के रूप में सामने आया। विज्ञान धन का का गुलाम और धन दुर्बुद्धि के हाथ की कठपुतली, सारे साधन इसी के इर्द-गिर्द। अपने को ज्ञानी कहते व विद्वान-बुद्धिमान, बलवान्ï समझने वाले, सभी दुर्बुद्धि के दास पर सिद्ध हुए। देश और समाज का वैभव एक बार फिर चकनाचूर हुआ, पर मैं अकेले चलता रहा-प्रयासों में शिथिलता नहीं आने दें।’’ महर्षि के स्वर में उत्साह था और देवर्षि के चेहरे पर उत्सुकता झलक रही थी।
कुछ रुककर बोले-‘‘महाभारत की रचना की, मानवीय कुकृत्यों की वीभत्सता का चित्रण किया। सत्कर्मो की राह दिखाई-वह सभी कुछ ढँूढक़र सँजोया, जिसका अवलंबन ले मानव सुधर सके-सँवर सके। बुद्धि विगत से सीख सके, पर परिणाम वही-ढाक के तीन पात।’’
तो क्या प्रयास से विरत हो गए महर्षि?’’-देवर्षि का स्वर था। ‘‘नहीं-विरत क्यों होता? कत्र्तव्यनिष्ठïा का ही दूसरा नाम मनुष्यता है। एक मनीषी का जो कत्र्तव्य है, अंतिम साँस तक अनवरत करता रहूँगा।’’
‘‘सचमुच यही है निष्ठïा?’’
‘‘हाँ तो महाभारत, का समुचित प्रभाव न देखकर यह सोच उभरी कि शायद इतने विस्तृत ग्रंथ को लोग समयाभाव के कारण पढ़ न सके हों? इस कारण ब्रह्मïसूत्र की रचना की। सरल सूत्रों से जीवन-जीने के आवश्यक तत्वों को सँजोया। एकता-समता की महत्ता बताई । एक ही परमसत्ता हर किसी में समाहित है- कहकर, भाईचारे की दिव्यता तुममें है-कहकर, स्वयं को दिव्य बनाने-अपना उद्धार करने की प्रेरणा दी। पर हाय री मानवी बुद्धि! तूने ग्रहणशीलता तो जैसे सीखी नहीं। पंडिताभिमानियों ने इस पर बुद्धि की कलाबाजियाँ खाते हुए तरह-तरह के भाष्य लिखने शुरू कर दिए, शास्त्रार्थ की कबड्ïडी खेलनी शुरू कर दी। जीवन-जीने के सूत्रों का यह ग्रंथ अखाड़ा बनकर रह गया।
‘‘अब पुन: समाधान की तलाश में हूँ। अंतव्र्यथा का कारण यह नहीं है कि मेरे प्रयास असफल हो गए अपितु मानव की दुर्दशा, दुर्मति-जन्य दुर्गति देखी नहीं जाती । असह्यï बेचैनी है अंदर, पर क्या करूँ? राह नहीं सूझ रहा।’’ कहकर वह आशाभरी नजरों से देवर्षि की ओर देखने लगे।
देवर्षि का सत्परामर्श
‘‘समाधान है।’’
‘‘क्या?-स्वर उल्लासपूर्ण था, जैसे सृष्टिï का वैभव एक साथ आ जुड़ा हो।
‘‘भाव-संवेदनाओं का जागरण-इसे दूसरे शब्दों में सोई हुई आत्मा का जागरण भी कह सकते हैं।’’
‘‘और अधिक स्पष्टï करें। ’’
‘‘आपने मानव-जीवन की विकृति को पहचाना, अब प्रकृति को और गहराई से पहचानिए, निदान मिल जाएगा। ’’
‘‘क्या है प्रकृति?’’
‘‘मनुष्य के सारे क्रियाकलाप अहं-जन्य हैं और बुद्धि-मन-इंद्रियाँ सब बेचारे इसी के गुलाम हैं। मानवीय सत्ता का केंद्र आत्मा है, यह परमात्मसत्ता अर्थात्ï सरसता, सक्रियता और उन्नत भावों के समुच्चय का अंश है। आत्मा का जागरण अर्थात्ï उन्नत भावों-दिव्य संवेदनाओं का जागरण। न केवल जागृति वरन्ï सक्रियता, श्रेष्ठï कार्यों के लिए-दिव्य-जीवन के लिए। ’’
‘‘पर भाव तो बहुत कोमल होते हैं?’’-महर्षि के स्वरों में हिचकिचाहट थी।
‘‘नहीं-ये एक साथ कोमल और कठोर दोनों हैं। सत्प्रवृत्तियों के लिए पुष्प जैसे कोमल, उनमें सुगंध भरने वाले और दुष्प्रत्तियों के लिए वज्र की तरह, एक ही आघात में उन्हें छितरा देने वाले।......भावों के जागते ही उनका पहला प्रहार अहंकार पर होता है। उसके टूटते-बिखरते ही मन और बुद्धि आत्मा के अनुगामी बन जाते हैं। मन तब उन्नत कल्पनाएँ करता है, बुद्धि हितकारक समाधान सोचती है। भाव-संवेदनाओं का जागरण एकमेव समाधान है-व्यक्ति विशेष का ही नहीं........समूचे मानव-समूह का। मन और बुद्धि, दोनों को कुमार्ग के भटकाव से निकालकर सन्मार्ग पर लगा देने की क्षमता भाव संवेदनाओं में
ही है। ’’
‘‘पर मानवीय बुद्धि बड़ी विचित्र है। कहीं भावों की जगह कुत्सा न भडक़ा लें? ’’
‘‘आपकी आशंका निराधार नहीं है, महर्षि! किंतु इस कारण भयभीत होकर पीछे हटना आवश्यक नहीं है। आवश्यक है सावधानी और जागरूकता-भाव कर्मोन्मुख होंगे-लोकहितकारी लक्ष्यों के लिए ही भाव-संवेदना का आह्वïान किया जाएगा भावों के अमृत को सद्ïविचारों के पात्रों में ही सँजोया जाएगा, विवेक की छलनी से उन्हें छाना जाएगा तो परिणाम सुखकारक ही होंगे। लेखनी से प्राण फूँकिए-जनमानस के मर्म को इस तरह स्पर्श करिए कि हर किसी की संवेदना-सदाशयता फडफ़ड़ा उठे। आत्मचेतना अकुलाकर कह उठे।-‘‘नत्वहं कामये राज्यंï न सौख्यं ना पुनर्भवम्ï। कामये दु:ख तप्तानां प्राणिनां आर्त नाशनम्ï ।’’
‘‘जनसमूह की आत्मा अभी मरी नहीं है-मूर्छित भर है। इस मूर्छित लक्ष्मण को सचेतन, सत्कर्म में तत्पर और राम-काज में निरत करने के लिए संजीवनी चाहिए। यह संजीवनी है- भाव-संवेदना। दे सकेंगे आप? यदि दे सकें तो विश्वास करें-स्थिति कितनी ही जटिल क्यों न हो, अँधेरा कितना ही सघन क्यों न हो, आत्मा के दिव्य भावों का तेज व प्रकाश उसे तहस-नहस करने में समर्थ हो सकेगा।
‘‘भाव चेतना का जागरण होते ही मनुष्य एक बार पुन:सिद्ध कर सकेगा कि वह ईश्वर-पुत्र है- दिव्यजीवन जीने में समक्ष है, वह धरती का देवता है और धरती को ‘स्वर्गादपि गरीयसी, बना सकता है, किन्तु.....कहकर देवर्षि ने महर्षि की ओर देखा।
‘‘किन्तु क्या? ‘‘ व्यास के चेहरे पर ढृढ़ता थी।
‘‘वेदव्यास के साथ उनके शिष्य-परिकर को जुटना पड़ेगा-उनके द्वारा विनिर्मित संजीवनी को जन-जन तक पहुँचाने में। आपके द्वारा सृजित भाव-मेघों को आपके शिष्य वायु की तरह धारण करके हर दिशा और हर क्षेत्र में तथा आपके द्वारा उत्पन्न इस सुगंध को जन-जन के हृदयों तक पहुँचाएँ, इस कार्य को युगधर्म व युगयज्ञ मानकर चलें-तभी सफलता संभव होगी। ‘‘
‘‘शिष्य-परिकर अपना सर्वस्व होम कर भी युगपरिवर्तन का यह यज्ञ पूरा करेगा।’’-महर्षि के शब्दों में विश्वास था।
‘‘तो मानव-जीवन को दिव्य बनने -आज की परिस्थितियाँ कल उलटने में देर नहीं। ‘‘-देवर्षि मुस्कराए।
‘‘मिल गया समाधान’’ -वेदव्यास ने भावविह्वïल स्वरों में देवर्षि को माथा नवाया। वह जुट गए युग की भागवत रचने और शिष्यों द्वारा उसे जन-जन तक पहुँचाने में ।
और नारद? वे चल दिए, फिर किसी की संवेदनाओं को उमगाने और उसे समाधान सुझाने हेतु।